ज़रा तकदीर से आओ हम,
मुलाकात करते हैं,
जो कह न सके कभी,
वो सभी बात करते हैं..
पूछेंगे ज़रूर हम,
क्या खता हमसे हुई थी,
मुरझा गयी वो डाल क्यों,
जो फूलो तक ने ना छुई थी..
क्यों इम्तेहान हमसे,
लेती रही ये ज़िन्दगी,
क्यों सैलाब आंसुओ का हमे,
देती रही ये ज़िन्दगी..
क्या विश्वास करना अपनों पर,
गुनाह हुआ करता है,
क्या कोई रिश्ता प्यार से भी,
बड़ा हुआ करता है..
क्यों ठोकर खा कर ही संभलना,
रीत बन गयी है..
क्या सिर्फ किताबो की बात ही,
दिल की प्रीत बन गयी है..
पूछते जा रहे थे हम,
कुछ जवाब न आ रहा था,
आँखों से बहते आंसुओ का भी,
हिसाब न आ रहा था..
और आखिर तक़दीर ने,
ख़ामोशी को तोडा,
सुन कर जिसको खामोश हुए हम,
एक ऐसे सच को बोला..
बोली वो बिन काटों के कभी,
गुलाब होता है क्या..
विधि के विधान का बोलो कोई,
जवाब होता है क्या..
क्यों खुशियों को भूलकर तुम,
बस दुःख को रोते रहते हो,
इस तरह हर पल में छुपी,
खुशियाँ खोते रहते हो..
सुनकर ये जब हमने,
सच्चाई का ध्यान लगाया,
गिले-शिकवे सब भुला के,
तकदीर को गले लगाया..
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